पुरुष दम्भ क्यों हारी मैं !


आँख खुली तो जीवन देखा, जीवन में क्यों खुद को देखा..
तेरे कहने भर से माना, मैंने है परमेश्वर देखा
मैं ही राधा, मैं ही सीता, काल चक्र को मैंने जीता..
फिर क्यों हारी हूँ मैं तुझसे, क्यों खुशियाँ रूठी हैं मुझसे?

कहते हो आज़ाद हूँ मैं, समझाओ क्या आज़ादी है?
यूँ आज़ादी की परिभाषा में जकड़ा क्यों मुझको
हाँ आज़ाद हूँ मैं, मुझको है अधिकार
जब तक तूने किया स्वीकार

हाँ! मैं मुस्काती हूँ, फिर क्यों मुस्कान ये मेरी नहीं..
बेटी, बहन, बीवी बनकर भी क्यों पहचान मेरी नहीं
क्यों बिलखुं मैं आँखें मीचें, क्यों रोऊँ हर बार
पौरुष के इस दंभ में तूने हर बार किये हैं वार

क्यों पुरुष दंभ में मारा मुझको
कभी कोख, कभी जीवन दे मारा मुझको..
अग्नि परीक्षा देने वाली मैं ही क्यों हर बार?
क्यों करुणा की मूरत हूँ, जब मेरा नहीं संसार..

हाँ! मैं हारी हूँ तुझसे, मानी मैंने हार
लेकिन पुरुष दम्भ अब भी है एक सवाल
मैं न हूँ तो क्या होता है, तिल- तिल कर जब जीवन रोता है
हाँ! हारी मैं तुझसे हर बार, अब भी है एक सवाल

- भावना (its all about feelings)

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4 Responses so far.

  1. Unknown says:

    nice effort .. no one can describe rather than you !

  2. बदल रहे हैं हम अपना तर्ज़-ए-ज़िन्दगी आज से,
    करेंगे सिर्फ उसे हम याद जिसे हम याद आयेंगे.

  3. bs koshish ki hai @sujit ji

  4. @munna tewari: ye bhi khoob h

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