वक्त के साए में बिखरे 'हम-तुम' और वो घर

अपना घर, शहर, मम्मी-पापा को छोड़कर एक नए शहर में आए हुए कितना वक्त बीत चुका है. साल भर तो नहीं, लेकिन हां एक महीना तो हो ही गया है. इतने वक्त में शायद बहुत सी बातों से पर्दा उठा, जिंदगी की बहुत सी नई बातों को महसूस भी किया. कुछ ऐसे लोगों का ध्यान देना जिनसे शायद ही अपने लिए चिंता की उम्मीद की हो या फिर उम्मीद होने के बाद भी हालचाल तक लेने का ख्याल न करने वाले मेरे प्रिय अपनो के बारे में भी नया जानने को भी मिला. ये सभी बातें जिंदगी के अनुभव में रोज नए पन्ने जोड़ रही हैं. एक लापरवाह सी दिखने वाली बेटी कब अपनी जिम्मेदारी उठाने लगी पता ही नहीं चला. अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात है जब घर से निकलने से चंद रोज पहले किसी भी बहाने से बस अपनी पसंदीदा चाय का मजा लेने का कोई भी मौका न छोड़ना जैसे सबसे जरूरी काम बन गया था. अपने घर, घर के हर कोने में खुद सजाए सामान को निहार कर बस किसी भी तरह खुद को खुश कर लेने की कोशिश बदस्तूर कई हफ्तों तक जारी रही. फ़्लैट-कल्चर और मेट्रो से सजी ये नई दुनिया कभी मेरे सपनों का आधार तो नहीं रही लेकिन हां, सपने तो इसी रास्ते से पुरे होने की जिद लिए बैठे हैं.

खैर, ईजा (मम्मी) साथ आयीं थी. उसकी नजर में भोली सी उसकी बेटी, (जिसे देश-दुनिया की खबर नहीं) को अकेले कैसे छोड़ देती. उन्ही की देखरेख में हमारे लिए एक कायदे का पीजी फाइनल कर लिया गया. अब भाई, खुले घर में रहने वाले शख्स को ऐसे एक कमरे में बंद कर देंगे तो मिलियन डॉलर स्माइल तो देगा नहीं. कुछ ऐसा ही 'मैं यहां, तू वहां' की तर्ज पर हम भी अपना झोला-झमटा उठाए इस एक कमरे या यूं कहें एक बिस्तर में सिमट लिए. फ्लैट कल्चर वाले शहरी जीवन, खासतौर से मेट्रो शहरों और उसके आसपास के इलाकों के बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि यहां एक नया संसार बस जाता है, जिसमें मतलब ज्यादा झलकता है. नफा-नुकसान का गणित आंककर दोस्ती बनायी और बिगाड़ी जाती है. इसके घर ज्यादा आना-जाना शुरू करो, शायद काम आ जाये. वहां जाने से क्या फायदा. इससे बात करो, उससे नहीं. वगैर-वगैरह... फिलहाल, इस बात से हम इत्तेफाक रखते हैं या नहीं ये कहा नहीं जा सकता लेकिन अकेलापन सालता है, इस बात को झुठला नहीं सकते.

तो हमको हमारे नाम पर बुक एक बिस्तर का कमरा दिला नोएडा से वापिस घर जाते समय ईजा ने हमसे गले लगकर खूब आंसू बहा लिए. उन आंसुओं से हमारा अकेलापन नहीं धुल पाया वो एक अलग बात है लेकिन, ईजा को जरूर थोड़ी शांति मिली होगी (अब हमने ज्यादा पूछा नहीं). दूसरी तरफ हम अबतक ऐसा एक पल ढूंढ रहे हैं जब फूट-फूटकर रो लें और सामने वाला प्रवचन न दे कि ससुराल में ईजा को साथ लेकर जाओगी क्या! बस हमको रोते हुए देखता रहे और चुप कराने की नाकाम कोशिश करता रहे. क्यूंकि भाई ससुराल जाएंगे तो विदाई के वक्त तो रोने का मौका मिलेगा ही. इस वक्त की तरह सिर्फ मुस्कुराने का बोझ तो न होगा. हालांकि, इस अजनबी शेहर शहर में पहले से रह रहे दोस्तों का क्रेज देख एक बार के लिए आश्चर्य हुआ कि किसीके आने की इतनी खुशी भी हो सकती है. इस एक कमरे को ढूँढने से लेकर शिफ्टिंग तक में जो सहयोग मिला, उसने घर से दूर रहने के दुःख को कम जरूर कर दिया. नए ऑफिस में बने नए दोस्तों ने भी जिंदगी को रंगीन बनाने में कसर नही छोड़ी, वैसे उनके बारे में फिर कभी.

इस दौरान सबसे जरूरी जिस बात की तरफ ध्यान गया, वो है रिश्ता निभाने की हमारी एकतरफा जिम्मेदारी. नोएडा आते वक्त बहुत से वादों का पुलिंदा साथ लेकर आये थे लेकिन आज गठरी खोलकर देखी तो वजन कुछ हल्का सा लगा. अबतक जितने भी लोग अकेलापन बांटने का दावा कर रहे थे, वे सभी व्यस्त हो चुके हैं. उनके जीवन में भी नए पन्ने जुड़ने लगे हैं, ऐसे में सपनों के घरोंदे बनाने वाले हमारे साथी अपने नए घरोंदे में शिफ्ट कर चुके हैं और 'बदल जाने' का इल्जाम हमें अपने ही सिर के उपर लेना पड़ा. वैसे देखा जाए तो शहर बदलने के साथ ही कुछ खास रिश्तों में आए इस बदलाव ने बहुत वक्त बाद आत्म-मंथन का संदेश दे दिया. इस आत्म-मंथन के शुरू होते ही आज पिता जी और उनकी बातें बहुत याद आ रही हैं, जब उन्होंने कहा था- 'बेटा, जीवन में किसी रिश्ते में हद से ज्यादा प्यार और उम्मीद की गठरी तकलीफदेह होती है.' कुछ ऐसा ही हो रहा है शायद. वर्चुअल दुनिया में हमेशा एक्टिव हमारे दोस्त, असल लाइफ में इनएक्टिव मालूम चल रहे हैं. खैर, उन्हें हमसे मोहब्बत तो बहुत है (अब ये दिल को बहलाने का ख्याल है या सच, मालूम नहीं).

इन सब किस्सागोई की बातों से अलग घर बहुत याद आता है. दोस्त, वो खुली छत, वो नुक्कड़ की दूकान.... कुछ भी तो नहीं खोया बस दिल के किसी कोने में छुपे बैठे हैं याद बनकर और हम इंतजार में कि कब वक्त का ये हिसाब खत्म होगा. बस इंतजार है उस एक लॉन्ग ड्राइव का, दोस्तों के साथ चाय की चुस्कियों का, भाई के साथ उस लड़ाई का और सबसे ज्यादा 'तुम्हारा'...

12 Responses so far.

  1. Unknown says:

    padh kar acha laga aur kuch kuch khud jaisa bhi mehsus kiya... life aisi hi hoti hai... jaise jaise hum move karte hain iss book me new page add on hote jate hain.... sab kahin na kahin busy ho jate hain aur tab hume sabse zyada bura feel hota hai... Itz LIFE and we r helpless.... but u shud keep moving... :)

  2. Mukul says:

    दोस्त, वो खुली छत, वो नुक्कड़ की दूकान.... कुछ भी तो नहीं खोया बस दिल के किसी कोने में छुपे बैठे हैं याद बनकर और हम इंतजार में कि कब वक्त का ये हिसाब खत्म होगा. सेंटी कर दित्ता ,बहुत बढ़िया भावना

  3. Unknown says:

    Yaad sehar .. kuch nya .. kuch purana .... aur waqt ke saye m bikhre ...

  4. Unknown says:

    Kuch aise hi soch k ur k liye likha tha ..
    Summer__s_gone_II_by_EvasionK
    किसी आँगन की खामोशी को देखा है,
    ना क़दमों की आहट है कोई,
    ना पायलों की रुनझुन ही बजते,
    ना किलकारी ही गूँजती अब,
    ना कोई रूठता ना रोता है !!
    ऐसे सुने से परे है हर कोने,
    जैसे घने जंगलों में शब्द खो जाते,
    ना भूलती है माँ वो …
    हर शाम दहलीज पर राह देखती !
    पंछी भी हर सुबह बंद खिरकियों से लौट जाती,
    हर सुबह खुली मिलती थी जो,
    गलियाँ बाट जोहती हरदम,
    हँसता हुआ कोई आता था इनमे !
    अब भी आँगन उसका अपना ही है,
    क्या कोई राहगीर अपने सफर पर निकल गया है ?

  5. @ankita shukla: thankuuu dida :)

  6. @mukul sir: thanks alot sir.. :) aapse hi sikha h likhna, koshish jaari hai..

  7. @suj!t ji: ना कोई रूठता ना रोता है.. :)

  8. @manoj tiwari: thanks dear..

  9. Unknown says:

    @bt
    ना कोई रूठता ना रोता है !!
    ऐसे सुने से परे है हर कोने,
    जैसे घने जंगलों में शब्द खो जाते,
    ना भूलती है माँ वो …
    हर शाम दहलीज पर राह देखती !
    पंछी भी हर सुबह बंद खिरकियों से लौट जाती,
    हर सुबह खुली मिलती थी जो,
    गलियाँ बाट जोहती हरदम,
    हँसता हुआ कोई आता था इनमे !
    अब भी आँगन उसका अपना ही है,
    क्या कोई राहगीर अपने सफर पर निकल गया है ?

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