वो शाम... तुम-मैं और हम

वो शाम... उस प्रोग्राम को देखते-देखते तुम्हारे कांधे पर सिर रखकर सो गयी थी मैं. कितना सुकून सा मिल रहा था. न तुमने ही मुझे जगाया, मेरा भी तो दिल नहीं था जागकर बैठ जाने का... शायद उस पल को जाने नहीं देना चाहती थी. कैसे शुरू हुआ ये किस्सा कुछ याद है तुम्हें ! मुझे उस पल के सिवा कुछ ठीक से याद नहीं लेकिन कुछ धुंधली तस्वीरें हैं-

मजाक में ही तो शुरू हुई थी मेरी-तुम्हारी बात. एक नए शहर से दिल लगाने की कोशिश कर ही रही थी, अबतक सहारा बने दोस्त भी तो जा चुके थे. अचानक तुम मिले- 'मुझे फर्क नहीं पड़ता और ऐसा ही हूं' के तल्ख़ अंदाज के साथ. यही तो रास आने लगा था मुझे। अनजाने में ख्याल रखने लगे थे मेरा... कुछ सोचकर या नासमझी में पता नहीं लेकिन रास आने लगे थे तुम मुझे।  तुमने यूंही पूछा था अपने लिए कैसा हमसफर चाहती हूं मैं, उस वक़्त मैंने जवाब दिया था पता नहीं लेकिन आज पूछोगे तो कहूंगी तुम जैसा।  याद है उस दिन भी यही हुआ था, तुमने वादा किया था हम घूमने जाएंगे... इंतजार कर रही थी तुम्हारा, तुम आये भी लेकिन कहा- 'यार दोस्त ने बुलाया है'...  मेरा मन नहीं था कि तुम जाओ फिर भी किस हक से मना करती।  पर तुम भी तो नहीं गए, रुके मेरे साथ पुरानी दिल्ली की गलियों में भटकने के लिए... 

तुम्हारे लिए वो पल खास था या नहीं ये तो पता नहीं लेकिन मेरे लिए था। क्यों था ये उस वक्त पता नहीं चला लेकिन आज सब समझ आ रहा है.... 

याद हैं जामा मस्जिद की वो संकरी सीढ़ियां जहां तुम्हारा हाथ थामकर ऊपर चढ़ रही थी। मेरी हर जिद पूरी कर रहे थे तुम, ये जानते हुए भी के बेसिरपैर की फरमाइशें हैं। मुझे बुरा भी लगा तुम्हारे दोस्त के पास ना जाने की वजह से लेकिन तुम्हारे साथ होने के एहसास ने सब भुला दिया। ग़ालिब के घर भी तो ले गए थे तुम.... ग़ालिब की शायरी जैसे ही तो हो तुम, आसानी से समझ ही नहीं आते। और वो पराठे वाली गली, पराठा खाकर कितना मुंह बनाया था मैंने कि न जाने लोग दीवाने क्यों हुए जाते हैं। तुमने कहा- माता सबका दिमाग खराब है न इसलिए।  वो दिन कितना खूबसूरत था। कितना अच्छा लग रहा था तुम्हारा साथ। हंसी-ठिठोली, इश्क़ की अनकही बाजी... 

और भी बहुत कुछ ख़ास था उन गलियों में लेकिन तुम्हारे साथ भटकने के एहसास से ज़्यादा ख़ास नहीं था। मेरी बेसिरपैर की बातें और तुम्हारा उन्हें सुनते जाना। 

और वो लाल किला... लाल किले की वो शाम तो याद ही होगी न ! इरादा तो लाल किले के एहसास को साथ करने का था लेकिन एहसास कुछ और हुआ. वहां उस शाम थककर चूर तुम्हारे कांधे पर सिर टिका दिया था मैंने। तुम कुछ नहीं बोले, बस सहारा देकर बैठ गए।  बीच में शायद मेरे बिखरे बालों को सहेजा था तुमने। तुम्हें पता नहीं लेकिन धड़कनें तेज हुईं थी मेरी। यूंही बंद आँखें कितना सुकून सा दे रही थीं. न तुमने ही मुझे जगाया, मेरा भी तो दिल नहीं था जागकर बैठ जाने का... शायद उस पल को जाने नहीं देना चाहती थी. आखिरकार उठना ही पड़ा लेकिन कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं थी मुझमें।  बस उस एहसास को थामकर रखने की कोशिश कर रही थी.

वो शाम बीत गई लेकिन एहसास नहीं। शायद एक नए एहसास की शुरुआत थी जिसकी भनक मुझे लगी ही नहीं। 


(भावना तिवारी- it’s all about feelings)

2 Responses so far.

  1. Anonymous says:

    Ek yad,ek ehsas ek mulaqat.

  2. Anonymous says:

    Ehsas hi toh Jeevan hai.ek yad,ek Ehsas aur ek mulaqat

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