जिन्दा है हिन्दी या शायद नहीं

किसी भी बच्चे से सवाल करिए कि हमारे देश में हिन्दी का पद क्या है? बिना समय लिए वो बच्चा बोल उठेगा राष्ट्रभाषा बच्चे ही क्यूं दुनिया घूम चुके किसी बड़े व पढे लिखे व्यक्ति का भी यही जवाब होगा और सवाल पूछने वाला इस जवाब से संतुष्ट नजर आएगा। वास्तविकता इससे इतर है| हमारे देश में कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई| देश के संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिन्दी भारत की 'राजभाषा' यानी ऑफिशियल भाषा मात्र है। भारत के संविधान में राष्ट्र भाषा का कोई उल्लेख नहीं है| कमाल की बात है कि भारत सरकार के पास विदेशों मैं हिंदी के प्रचार प्रसार से सम्बंधित 36 वर्षों ( 1947-1983) के अभिलेख भी मौजूद नहीं हैं| आप हिन्दी प्रेमी हैं तो 14 सितम्बर आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण होगा, यदि नहीं तो जानकारी के लिए बता दूं कि इस तारीख को हिन्दी दिवस के रुप में मनाया जाता है। महीने का एक हफ्ता हिन्दी को समर्पित होता है, जिसे मनाया जाता हैं हिन्दी पखवाड़े के रुप में।
साल भर उपेक्षा झेलने वाली हिन्दी को इन दिनों में इतना सम्मान मिलता है जिसकी अपेक्षा किसी ने नहीं की होती। इस बारे में मेरे एक बेहद करीबी मित्र ने व्यंग करते हुए कहा, ‘जो सम्मान रोज मिले वो सम्मान, सम्मान नहीं लगता।‘ बात तो उसकी सोलह आने सच लगी। सोचिए दिवाली, होली रोज मनाई जाए तो रंग रहेगा क्या? कमाल की बात ये कि इन त्यौहारों को इसलिए मनाया जाता है क्योंकि यह सब बीत चुके हैं और इन्हें अपनी यादों में ज़िंदा रखना बेहद जरूरी है लेकिन हिंदी दिवस, हिन्दी तो जिन्दा है या शायद नहीं? अब सवाल ये कि 14 तारीख तो बीत गई न, फिर आज प्रवचन का क्या फायदा? तो भाई जिस तरह से जन्मदिन के हफ्ते भर पहले और बाद तक बधाई व मौज का दौर चलता है उसी तरह हिन्दी दिवस का भी हक तो बनता है न। हर साल की तरह इस साल भी एक हफ्ते तक हिन्दी का जलवा देखने को मिलेगा। अब टेक्नोलॉजी की इस दुनिया में किसी भी विशेष दिन पर टिप्पणी तो बनती ही है|
ऐसे में, हिन्दी दिवस के दिन यूंही फेसबुक पर ऑनलाइन हुई, माफ करीएगा जीवन में अग्रेंजी इस तरह से घुल गई है कि कुछ समझ नहीं आता। हां तो, ऑनलाइन होते ही खुशी से फूली नहीं समाई। कारण, हर तरफ हिन्दी दिवस की बधाइयां बिखरी पडी थीं। कोई हिन्दी को उचित टाइप का सम्मान दिलाने की बात कर रहा था तो कोई हैप्पी हिन्दी डे बोल रहा था। बेशक, सबका तरीका अलग था लेकिन ध्येय एक ही था| फेसबुकिंग करते-करते एक पोस्ट पर नजर पडी, उसे लिखने वाले ने खेद जताते हुए लिखा था, ‘पूरे दिन फील्ड पर रहा लेकिन कहीं पता नहीं चला कि आज हिन्दी दिवस है। अभी फेसबुक पर आया तो पता चला.... बड़ा गड़बड़ मामला है।‘ हालांकि मुझे समझ नहीं आया कि उनके लिए कौन सा मामला गड़बड़ है, पता नहीं चला ये या हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है ये। खैर एक और व्यथा थी फेसबुक पर जो ध्यान आकर्षित करने के लिए काफी थी। एक मित्र ने हिन्दी की दुर्दशा का वर्णन करते हुए लिखा था कि राष्ट्रभाषा का किसी भी तरह का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उनका हिन्दी प्रेम देखकर भाव विभोर होना लाजिमी था| खुशी से फूले नहीं समा रहे मन ने आखिरकार खुशी जताते हुए बोल ही दिया कि चलो इतने सारे लोगों ने इस एक दिन में हिंदी को लेकर अपने प्रेम को प्रदर्शित कर इसे संरक्षण देने की बात पर मुहर तो लगाई|
कितना अजीब है, आजादी के इतने सालों बाद भी हम हिंदी को लेकर एक पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं| बच्चा पैदा होता नहीं कि हम उसे बोलते हैं, ‘देखो बेटा ये है मम्मा और ये हैं डैडी’, जैसे अगर वो माँ-पिता जी बोल दे कोई गुनाह हो जाये| सरकारी चाहिए नौकरी पर बच्चों को पढ़ाना है कॉन्वेंट में, वो नेता जो हिंदी दिवस के दिन न जाने कितने ही स्कूलों ओर कार्यालयों में जाकर लम्बे-चौड़े भाषण देते हैं उनके खुद के बच्चे हिंदी बोलने में शर्माते हैं| इन सब के बारे में बात करते हुए मुझे वर्ष 2011 याद आ रहा है जब हमारे मंत्री, मंत्रिमंडल के गठन के समय शपथ ले रहे थे वो भी अंग्रेजी में| किसी और राज्य के मंत्री अंग्रेजी में शपथ लें तो समझ आता है पर उत्तर-प्रदेश जहाँ की प्रथम भाषा ही हिंदी है वो भी इस तरह का सौतेला बर्ताव करें तो आश्चर्य होता है| इस दौरान कहीं न नहीं, अगाथा संगमा को हिंदी में शपथ लेते हुए सुनकर ऐसा लगा मानो प्यासे को पानी की एक बूँद मिल गयी हो| दिल में एक सुकून सा महसूस हुआ कि चलो आज भी हमारी राजभाषा की कोई तो क़द्र है| सिवाए उनके किसी ने भी हिंदी बोलने का कष्ट नहीं किया, चाहे जैसी भी बोली हो पर अगाथा ने हिंदी का मान रखा और वहां मौजूद लोगों को ये आभास दिलाया कि सिर्फ़ हिंदी दिवस मना लेने से हिंदी को उसका मान वापस नहीं मिल जाएगा|
इस बात को इतना वक्त बीत चुका है कि ये बात मेरे दिमाग से उतर सी गयी थी और दूसरों की तरह मैं भी अपनी ज़िन्दगी में मशगूल हो गयी | लेकिन कल अपना काम करके घर वापिस लौटते समय एक माँ-बेटी पर नज़र पड़ी| ऑटो में मेरे साथ बैठे थे ये दो अनजान शख्स| माँ ने अपना किराया बचाने के लिए बच्ची को गोदी में बिठा लिया बच्ची के सवाल करने पर जवाब मिला, ‘बेटा इससे 10 rs. बचेंगे और हम जल्दी घर पहुंच जाएँगे|’ उस वक्त ये सुनकर अजीब नहीं लगा पर जब यही बात एक दूसरी औरत ने इस तरह कहा कि ‘दस रूपये बचेंगे’ तो लगा कैसे लोग हैं ये! इतने से रूपये बचाने ज़रुरी हैं लेकिन बच्ची का आराम नहीं| फ़िर याद आया कि कुछ वक़्त पहले मेरी दायीं तरफ बैठी औरत ने भी तो कुछ यही कहा था लेकिन मुझे अजीब क्यूँ नहीं लगा! तब एहसास हुआ कि आज अंग्रेजी हमारी ज़िन्दगी में ऑक्सिजन की तरह शामिलहो चुकी है, जिसके बिना हम खुद की कल्पना तक नहीं कर सकते| एक सब्जी वाल भी अच्छी-खासी अंग्रेजी जानता है, कॉन्वेंट में पड़ने वाले बच्चो की तो बात ही छोड़ दीजिये|
जिसे अंग्रेजी नहीं आती वो खुद को दूसरों से छोटा समझता है, ऐसा लगता है मानो उसकी कोई अपनी पहचान ही न हो| ऐसे में मान लेना जरूरी है कि हिंदी की हालत खराब नहीं बल्कि खराब है हमारी आदतें| हमें दूसरों की चीज़े इतनी पसंद आ जाती हैं कि हम उन्हें खुद पर हावी होने देते हैं और भूल जाते हैं कि हमारी भी अपनी एक स्वतंत्र पहचान है| अंग्रेजी बोलना गलत नहीं, गलत है उसे खुद पर हावी कर लेना और भूल जाना कि हमारी भी अपनी एक भाषा है| आज तक वही संस्कृति और भाषा जीवित रही है जिसने दूसरी संस्कृति और भाषा को खुद में समाहित करते हुए अपनी पहचान को भी जीवित रखा हो| इस दस रूपये के खेल में हमने बहुत से खेलों को याद कर लिया, जो खेल-खेल में हिंदी की ऐसी की तैसी कर देते हैं और सफेद कपड़े पहने नेता एक-दूसरे की नीतियों को दोष देते रहते हैं| हमारी ज़िन्दगी में बहुत सी ऐसी बातें शामिल होती जा रही हैं जो शायद हमारी पहचान को कहीं छुपाते जा रहे हैं लेकिन इन बातों पर ध्यान देना हम कभी भी जरूरी नहीं समझते| शायद दूसरों की खूबियाँ देखते-देखते हम खुद की खूबियाँ याद रखना भूल जाते हैं| याद रहती है तो सिर्फ एक बात के वो कितना गुणी हैं|
क्या आपको याद है बचपन में हिंदी की किताब में लिखा वो एक मुहावरा 'दूर के ढोल सुहावने'....! बहुत सटीक और हमारी मानसिकता पर चोट करने वाला मुहावरा है ये| हमें हमेशा से ही अपने आस-पास की चीज़ों से ज्यादा, दूर की चीज़ें पसंद आती हैं और हम बिना उसकी असलियत जाने उसे एक पल में स्वीकार कर लेते हैं| कहीं ऐसा न हो कि दूसरों की खूबियां तराशते-तराशते हम खुद की खूबियाँ भूला बैठें| आखिर ‘मां’ शब्द में जो मिठास है वो ‘मॉम’ में कहां... चेहरे पर मुस्कान तो इसी शब्द को सोचकर आ जाती है| मैंने तो यूँही बैठे-बैठे अपनी इस दोहरी मानसिकता से लड़ने का मन बना लिया है, अब आपकी बारी है...

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