'असुरक्षा' भरे युग में प्रवेश करते हम


कुछ भी बोलने-लिखने से पहले मन में सवाल आता है कि कहीं ये अखबारों की सुर्खियां ना बन जाए (समझना जरूरी है- नकारात्मक स्तर की सुर्खियां) या फिर किसी टीवी डिबेट का हिस्सा । ये सब इतना गलत नहीं लेकिन सही भी नहीं। इन सबसे भी ज्यादा खतरनाक है आपकी व्यक्तिगत बातों का गलत तरीके से सोशल साइट्स पर छा जाना । आप कहें कुछ, समझा कुछ और जाए, लिखा कुछ और जाए । तकनीक के इस युग में कुछ यूं कहें कि दिमाग पर पहले से माने हुए विचार हावी हो रहे हैं तो कुछ गलत नहीं होगा ।


जो कुछ भी हो रहा है कितने ऐसे लोग हैं जिन्हें वास्तव में इस बात की समझ होगी कि असल में हो क्या रहा है ! शायद आधे भी नहीं । ये सिर्फ आम जनता की ही बात नहीं.. बड़ी-बड़ी राजनैतिक पार्टियों के नेता या बड़े मीडिया हाउस में काम कर रहे लोगों पर भी लागू होती है । उन्हें भी नहीं पता कि आखिर मसला है क्या.. बस एक समझदार बता देता है और हम समझ जाते हैं । फिर लाइमलाइट में आने की चाह किसी को विरोधी तो किसी को साथी बनाती जाती है । जिनके साथ हमेशा से अच्छे संबंध रहे हों उनसे भी छोटी सी बात पर मनमुटाव होने लगा है ।

जिस तरह हर बात कुछ समय बाद राख हो जाती है ठीक उसी तरह हैदराबाद युनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी का मामला हो, जेएनयू में लगे देशद्रोही नारों का, वकीलों की बद्सलूकी, कन्हैया का दिल को छू लेने वाला भाषण.. या कॉमरेड-संघी की लड़ाई। वक्त के साथ ये सभी धूमिल हो जाएंगे। कुछ वक्त बाद एक नया किस्सा उभरेगा और लोग सड़कों पर उतरेंगे- कोई साथ देने के लिए तो कोई विरोध करने के लिए । और हमेशा से खिलवाड़ करते आए नेता या हम खुद इस बात को कैश कराना नहीं भूलेंगे। 

मौजूदा वक्त किसी एक के लिेए असुरक्षा की भावना पैदा नहीं कर रहा, इसमें सभी शामिल हैं । देश का पंडित सोचता है उसे आज के युग में अपनी बात रखने का अधिकार नहीं या सवाल पूछने का हक नहीं ( याद रहे किसी भी तरह का सवाल) । वहीं, दूसरी तरफ दलित या पिछड़ी जाति के लोग साथ हमेशा से हो रहे अत्याचार या भेदभाव के चलते पहले से ही इस भावना के साथ जीते आए हैं । विडंबना इतनी है कि जो नहीं दबाता उसे सवालों के घेरे में खड़ा किया जाता है और जो अत्याचार करता है उससे सवाल करने की मंशा किसी की नहीं ।

इस असुरक्षा की भावना से इसलिए भली-भांति वाकिफ हूं क्योंकि इससे दो-चार हो चुकी हूं । बातों-बातों में किसी से पूछा था कि कन्हैया कौन है (दरअसल उसकी वाकपटुता से प्रभावित हूं और हर बात जानना चाहती हूं उसके बारे में, सिर्फ उसकी जाति नहीं) खैर, हंसते हुुए सवाल के जवाब में सवाल मिला था- 'तुम्हें भी जाति में दिलचस्पी है। वो भूमिहार है 'खैर, भूमिहार होने का मतलब भी मुझे समझना पड़ा ।  एक बार 'बामनवादी बकबक' करने का आरोप भी झेल चुकी हूं (और ये बेहद खास दोस्त की  समझ थी )। दरअसल, नाम के साथ लगा तिवारी लोगों को ज्यादा सूचना दे देता है।  संदर्भ कुछ और था पेश कुछ और किया गया ।

सिर्फ मैं ही नहीं, मेरा एक मित्र दलित होने की वजह से हमेशा ही ऐसी बातों से दो-चार होता आया है   कुछ प्रकांड पंडित लोग हैं जो कर्म से शायद उसके सामने कहीं नहीं टिकते लेकिन धर्म के नाम पर उच्चता दिखाना नहीं भूलते । उसे कई बार बताया जाता है कि वो क्या है । कई लोगों को चाय तक पीने से गुरेज है उसके साथ, वो बात अलग है कि उसके साथ पानी पीने तक की हैसियत नहीं उनकी । कोशिश तो बात टालने की होती है लेकिन कई बार दिल पर चुभ जाती है । वो दोस्त मुस्कुराता जरूर है लेकिन तकलीफ उसे कुछ कम नहीं । 15 अगस्त या 26 जनवरी के दिन हर प्रोफाइल पर दिखने वाला तिरंगा उतरते ही हमारे खून का रंग बदल जाता है ।

हर शख्स का अपना चश्मा है जिससे दुनिया देखता है वो । मुझे भी कुछ तकलीफें हैं समाज के नियमों से, कभी लड़की होने के नाते, कभी पंडित होने के नाते, कभी बेटी होने के नाते तो कभी दोस्त होने के नाते। ' जो पाप मैंने नहीं किया उसकी सजा मुझे क्यों! जो बात कभी समझी ही नहीं आज समझने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ रहा है ! क्यों असुरक्षित हूं मैं अपने दोस्तों के बीच! क्यों मेरे दोस्त शक की नजरों से देखते हैं मुझे ! क्यों मेरे दोस्त अपने दिल की बात बोलने से पहले सोचने लगें  हैं ! क्यों डर है मुझे मेरी हर बात किसी फेसबुक स्टेट्स या सोशल नेटवर्क का हिस्सा बन जाएगी !

क्या हम वाकई असुरक्षा भरे समय में कदम रख चुके हैं ? अपनों पर ही यकीन नहीं हमें ! सवाल बहुत लेकिन इन सवालों का जवाब देने वाला कोई नहीं । माफ़ी तो दे ही सकते हैं उन पूर्वजों के किये की। निरपराधी को अपराधियों सी सजा क्यों ! जाने क्यों कटघरे में खड़ा होना पड़ता है किसी शख्स को ! मतभेद तो ठीक है लेकिन मनभेद! ये तो ठीक नहीं। हमारी तरक्की.. हमारे आगे बढ़ने के लिए वो वक्त, वो विश्वास जरूरी है जहां अपनी बात रखी जा सके। सिर्फ मेरे लिए नहीं, मेरे दोस्त के लिए नहीं- हम सब के लिए । 

(भावना तिवारी- it’s all about feelings)

2 Responses so far.

  1. brijesh kashyap says:

    Nice thinking......dil ko chu jane wali baatein...

  2. सच के साथ यूं ही चलती रहो। जिंदाबाद। :)

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