देवी नहीं इंसान रहने दो मुझे
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न जाने क्यों नवरात्र आते ही अपना वो मासूम बचपन याद आने लगता है| वही बचपन जब अष्टमी और नवमी के दिन सुबह से ही अपनी थाली लिए तैयार खड़ी रहती थी| बस इंतज़ार रहता था कि कब पड़ोस वाली आंटी आएंगी और कहेंगी- 'बेटे, चलो कन्या पूजन का वक्त हो गया'| कितनी मासूमियत थी उस वक्त.. बस वही गोटा लगा लंहगा पहनकर चल देती पायल छनकाते हुए| आखिर कन्या खाने के बाद वो दो रूपये भी तो मिलते थे, एक रुमाल के कोने में बंधे हुए| और कुछ वक्त बाद इतना थक जाती थी कि बोल पडती थी- 'मम्मा अब नी जाना, बहुत थक गया हूं'| सुबह से खुशी में घनचक्कर बनकर घूम रही इस लड़की को भी आखिर थकने का अधिकार था|
थोड़ी बड़ी हुई तो मन में बहुत से सवाल भी उठने लगे| शायद उस वक्त तक अपनी पूजा करवाना खलने लगा था| एक दिन बात-बात में ईजा से पूछा आखिर ये पूजा होती क्यों हैं? तो उसने बताया था कि हिन्दू धर्म की मान्यतानुसार नवरात्र में नौ कन्याओं को खिलाने और उनकी पूजा करने से माँ दुर्गा खुश होती हैंI इन नौ दिनों में वो छोटी कन्याएं मां दुर्गा के नौ रूपों का प्रतीक होती हैं| खैर, नवरात्र के खत्म होने के साथ ही खत्म हो जाती है उन बेटियों की ज़रूरत और याद आता है अपना वंश, जिसे चलाने के लिए ज़रूरत होती है बेटों कीI इन बेटों के होने की कीमत चुकाती हैं मासूम बेटियाँ, जो अपने होने का एहसास तक नहीं कर पातींI पहले-पहल बहुत ख़ुशी का एहसास होता है जब इन नौ दिनों में लोग लडकियों की पूजा करते हैं और उन्हें सम्मान देते हैं, पर जैसे-जैसे समाज के स्याह चेहरे से रूबरू होने का मौक़ा मिलता है तब ऐसा लगता है मानो लोग इन नौ दिनों में आगे किये जाने वाले पापों की पहले से माफ़ी मांग रहे हों ताकि उन्हें अपने पापों का प्रायश्चित न करना पड़े|
सच कहूं तो नवरात्र के पहले ही दिन से 'हिंदी दिवस' वाली फीलिंग आ रही है। या फिर वैसा जैसे मरने के बाद बड़े ही प्यार से श्राद्ध किया जा रहा हो। अब इससे पहले की आप इसका कुछ और ही मतलब निकालें, आपको बता देती हूं कि ऐसा क्यों कहा। खुद की बात करूं तो घर में कुछ ऐसा महसूस नहीं होता लेकिन घर से बाहर निकलते ही थोड़ी सी परेशान हो जाती हूं। प्यार, विश्वास और अविश्वास का ऐसा समायोजन देखा है कि महिलाओं के लिए 'देवी' जैसे शब्द महज एक मजबूरी या यूं कहूं तो 'सोने का पिंजरा' सा महसूस होता है। एक दिन बातों-बातों में ईजा (मम्मी) से पूछा था कि हमलोगों को ये हीरे-जवाहरात और गहनों से इतना लगाव क्यों होता है? मतलब तुम इतनी सुन्दर दिखती हो जबकि कभी पार्लर नहीं गयी (असल में पिता जी को पसंद नहीं, तो अब वही ईजा की भी पसंद नहीं रही). तब उसने समझाया था कि किसी को भी अपने पास बिना सवालों के रखना हो तो एक कमजोरी पैदा कर दो और उसे उसकी पहचान बना दो। सारी परेशानियां वहीँ हल हो जाएंगी। बात तो सही है, हम भी तो यही करते हैं कभी-कभी|
एक कन्या के नाम पर नौ दिन के व्रत, नदियों को माँ के रूप में मानने वाला देश उसके बावजूद कन्या भ्रूण हत्या! ये सभी अलग-अलग रूप, मान्यताओं और सोच को दर्शाते हैंI एक तरफ तो हम आधुनिकता और सफलता की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं और दूसरी तरफ हम अपनी पुरानी मान्यताओं को ठोकर मार रहे हैं | जैसे-जैसे हमारा शैक्षिक स्तर सुधर रहा है उसके उलट कन्या भ्रूण हत्या जैसी बातें अपना चरम छू रही हैंI जिन मान्यताओं को एक बेटी के जीवन को बचाने के लिए बनाया गया, आज उन्ही मान्यताओं का इस्तेमाल मासूम अजन्मी बच्ची के ख़िलाफ़ किया जा रहा है I जगह-जगह लिंग जांच मना होने के बावजूद लिंग जांच हो रही है और अगर इस जांच में एक लडकी का अस्तित्व दिखाई पड़ता है तो उस अस्तित्व को बिना किसी हिचकिचाहट के मिटा दिया जाता हैI क्या खूब दस्तूर है इस समाज का "जन्म देने वाले को ही जन्म लेने का अधिकार नहीं"... हां, यही कहना चाहते हैं न आप कि वक्त बदल चुका है.. लेकिन क्या वाकई! अगर सच में बदल चुका है तो यकीन मनिए इससे ज्यादा खुशी की बात कुछ नहीं|
समाज में चल रही बदलाव की बयार के बाद भी एक तरफ़ कोई बेटी आसमान छू रही है तो दूसरी तरफ़ कोई बेटी आंख भी नहीं खोल पाती| महरूम रह जाती है इस ख़ूबसूरत ज़िन्दगी को जीने से, रिश्तों का एहसास करने से, कभी प्यार से तो कभी रूठकर मनाने से| चाहे समाज का दोहरा चरित्र कहें या हमारी बदनसीबी, पर होता यही हैI ऐसा नहीं है कि समाज में बस इसी तरह के लोग होते हैं जो बेटियों को अपनी परेशानी का सबब मानते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो बेटियों को पूजने के ढोंग को छोडकर उनकी ज़िन्दगी संवारने की कोशिश करते हैं| ऐसे बहुत से उदाह्र्ण आपको अपने आस-पास मिल जाएँगे बस ढूँढने की देर है| हर दिन एक नया नियम, एक नयी सज़ा सुनाई पड़ती है, फिर भी वंश और वंशवाद के मोह में अंधे कुछ लोग मासूम बच्चियों को मारने से भी गुरेज़ नहीं करते| राजस्थान के किसी गाँव में उसी वक़्त पैदा हुई बच्ची को दूध में डूबोकर मार दिया जाता है, तो देश के कहीं किसी गांव या शहर में एक मासूम को सड़क पर आवारा कुत्तों के लिए छोड़ दिया जाता है| और इसमें भी ये अंधे लोग अपनी शान समझते हैं| इन हत्याओं के लिए सिर्फ़ हमारा पुरुष प्रधान समाज ही दोषी नहीं बल्कि एक औरत भी उतनी ही ज़िम्मेदार है, ख़ुद एक बेटी के रूप में जन्म लेकर भी जो बेटी का सम्मान ना कर पाए उसे क्या कहेंगे आप! उसके होते ही ऐसा लगता है मानो मातम छा गया हो; उस मासूम से इंसान होने का हक छीन लिया जाता है, बेटी होने का हक़ तो बहुत दूर की बात है|
देखा जाए तो कहीं न कहीं खुले विचारों वाले माहौल में पली-बढ़ी लड़की समाज के लिए सबसे बड़ा कांटा होती है। या यूं कहूं तो संस्कारों को सबसे ज्यादा नुकसान होने का डर भी उन्हीं से होता है। क्योंकि कहीं न कहीं देखा जाए तो उसे अपने मां-बाप से बेटियों की इज्जत करने और उन्हें भी इंसान समझने की बेजा तालीम जो मिली होती है| खैर, मामला थोड़ा भटक गया। इस मसले पर कभी और प्रवचन दूंगी। हां, शायद में इतनी बड़ी हो गयी हूं (संस्कारी और धार्मिक लोगों की जुबान में कहूं तो इतनी बदतमीज) की समाज के नियमों और धार्मिक अनुष्ठानों को लेकर सवाल उठाने लगी हूं| लेकिन सच है, अगर कोई मुझसे पूछे कि क्या मैं 'देवी' की पदवी पाकर खुश हूं तो नहीं... मुझे देवी नहीं बनना, नहीं है मेरे अंदर बलिदान को भावना, वो सहनशक्ति जो किसी देवी में होती है| न ही किसी को माफ कर सकने की क्षमता है मुझमें| बस सही को सही और गलत को गलत कह सकने की ताकत है मुझमें| क्यों नहीं समझना चाहते हम कि समाज में सिर्फ़ देवियों की ही नहीं बल्कि बेटियों की ज़रूरत है जो अपने मां-बाप को भावनात्मक सम्बल दे सके और उन्हें गर्व से जीने का अधिकार दे सकेI बचपन से ही जब भी किसी त्यौहार के बारे में बात होती थी तो पापा या फिर ईजा उसके पीछे छिपे कारण के बारे में बताने लगते थे| हमेश उनसे सुना है कि कोई त्यौहार यूंही नहीं मनाया जाता, कोई ठोस कारण होता है उसके पीछेI आंखें मूंद कर उसका अनुसरण करना जरूरी नहीं, उसके पीछे का मकसद और भावना को समझना जरूरी है|
एक लड़की के दिल से पूछिए उसे देवी की पदवी चाहिए या एक सुखी जीवन का वरदान और ये वरदान उसे तब मिलेगा जब उसके माँ-बाप उसे इस धरती पर जन्म लेने का वरदान देंगे,उंची शिक्षा देंगे, अपना प्यार देंगेI यहां साहित्यिक नहीं होना चाहती, न ही इतनी बड़ी लेखक ( छोटी भी नहीं) हूं कि बड़ी बातें कर सकूं, बस एक गुजारिश कर सकती हूं कि 'मुझे या किसी भी लड़की को देवी मत बनाइये, इंसान ही रहने दीजिए... ये एहसान ताउम्र याद रहेगा' और हां, 'एक और बेटी को जन्म का वरदान दीजियेगा, वैसे ही जैसे उस बेटे को दिया है'|
भावना- (it's all about feelings)
थोड़ी बड़ी हुई तो मन में बहुत से सवाल भी उठने लगे| शायद उस वक्त तक अपनी पूजा करवाना खलने लगा था| एक दिन बात-बात में ईजा से पूछा आखिर ये पूजा होती क्यों हैं? तो उसने बताया था कि हिन्दू धर्म की मान्यतानुसार नवरात्र में नौ कन्याओं को खिलाने और उनकी पूजा करने से माँ दुर्गा खुश होती हैंI इन नौ दिनों में वो छोटी कन्याएं मां दुर्गा के नौ रूपों का प्रतीक होती हैं| खैर, नवरात्र के खत्म होने के साथ ही खत्म हो जाती है उन बेटियों की ज़रूरत और याद आता है अपना वंश, जिसे चलाने के लिए ज़रूरत होती है बेटों कीI इन बेटों के होने की कीमत चुकाती हैं मासूम बेटियाँ, जो अपने होने का एहसास तक नहीं कर पातींI पहले-पहल बहुत ख़ुशी का एहसास होता है जब इन नौ दिनों में लोग लडकियों की पूजा करते हैं और उन्हें सम्मान देते हैं, पर जैसे-जैसे समाज के स्याह चेहरे से रूबरू होने का मौक़ा मिलता है तब ऐसा लगता है मानो लोग इन नौ दिनों में आगे किये जाने वाले पापों की पहले से माफ़ी मांग रहे हों ताकि उन्हें अपने पापों का प्रायश्चित न करना पड़े|
सच कहूं तो नवरात्र के पहले ही दिन से 'हिंदी दिवस' वाली फीलिंग आ रही है। या फिर वैसा जैसे मरने के बाद बड़े ही प्यार से श्राद्ध किया जा रहा हो। अब इससे पहले की आप इसका कुछ और ही मतलब निकालें, आपको बता देती हूं कि ऐसा क्यों कहा। खुद की बात करूं तो घर में कुछ ऐसा महसूस नहीं होता लेकिन घर से बाहर निकलते ही थोड़ी सी परेशान हो जाती हूं। प्यार, विश्वास और अविश्वास का ऐसा समायोजन देखा है कि महिलाओं के लिए 'देवी' जैसे शब्द महज एक मजबूरी या यूं कहूं तो 'सोने का पिंजरा' सा महसूस होता है। एक दिन बातों-बातों में ईजा (मम्मी) से पूछा था कि हमलोगों को ये हीरे-जवाहरात और गहनों से इतना लगाव क्यों होता है? मतलब तुम इतनी सुन्दर दिखती हो जबकि कभी पार्लर नहीं गयी (असल में पिता जी को पसंद नहीं, तो अब वही ईजा की भी पसंद नहीं रही). तब उसने समझाया था कि किसी को भी अपने पास बिना सवालों के रखना हो तो एक कमजोरी पैदा कर दो और उसे उसकी पहचान बना दो। सारी परेशानियां वहीँ हल हो जाएंगी। बात तो सही है, हम भी तो यही करते हैं कभी-कभी|
एक कन्या के नाम पर नौ दिन के व्रत, नदियों को माँ के रूप में मानने वाला देश उसके बावजूद कन्या भ्रूण हत्या! ये सभी अलग-अलग रूप, मान्यताओं और सोच को दर्शाते हैंI एक तरफ तो हम आधुनिकता और सफलता की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं और दूसरी तरफ हम अपनी पुरानी मान्यताओं को ठोकर मार रहे हैं | जैसे-जैसे हमारा शैक्षिक स्तर सुधर रहा है उसके उलट कन्या भ्रूण हत्या जैसी बातें अपना चरम छू रही हैंI जिन मान्यताओं को एक बेटी के जीवन को बचाने के लिए बनाया गया, आज उन्ही मान्यताओं का इस्तेमाल मासूम अजन्मी बच्ची के ख़िलाफ़ किया जा रहा है I जगह-जगह लिंग जांच मना होने के बावजूद लिंग जांच हो रही है और अगर इस जांच में एक लडकी का अस्तित्व दिखाई पड़ता है तो उस अस्तित्व को बिना किसी हिचकिचाहट के मिटा दिया जाता हैI क्या खूब दस्तूर है इस समाज का "जन्म देने वाले को ही जन्म लेने का अधिकार नहीं"... हां, यही कहना चाहते हैं न आप कि वक्त बदल चुका है.. लेकिन क्या वाकई! अगर सच में बदल चुका है तो यकीन मनिए इससे ज्यादा खुशी की बात कुछ नहीं|
समाज में चल रही बदलाव की बयार के बाद भी एक तरफ़ कोई बेटी आसमान छू रही है तो दूसरी तरफ़ कोई बेटी आंख भी नहीं खोल पाती| महरूम रह जाती है इस ख़ूबसूरत ज़िन्दगी को जीने से, रिश्तों का एहसास करने से, कभी प्यार से तो कभी रूठकर मनाने से| चाहे समाज का दोहरा चरित्र कहें या हमारी बदनसीबी, पर होता यही हैI ऐसा नहीं है कि समाज में बस इसी तरह के लोग होते हैं जो बेटियों को अपनी परेशानी का सबब मानते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो बेटियों को पूजने के ढोंग को छोडकर उनकी ज़िन्दगी संवारने की कोशिश करते हैं| ऐसे बहुत से उदाह्र्ण आपको अपने आस-पास मिल जाएँगे बस ढूँढने की देर है| हर दिन एक नया नियम, एक नयी सज़ा सुनाई पड़ती है, फिर भी वंश और वंशवाद के मोह में अंधे कुछ लोग मासूम बच्चियों को मारने से भी गुरेज़ नहीं करते| राजस्थान के किसी गाँव में उसी वक़्त पैदा हुई बच्ची को दूध में डूबोकर मार दिया जाता है, तो देश के कहीं किसी गांव या शहर में एक मासूम को सड़क पर आवारा कुत्तों के लिए छोड़ दिया जाता है| और इसमें भी ये अंधे लोग अपनी शान समझते हैं| इन हत्याओं के लिए सिर्फ़ हमारा पुरुष प्रधान समाज ही दोषी नहीं बल्कि एक औरत भी उतनी ही ज़िम्मेदार है, ख़ुद एक बेटी के रूप में जन्म लेकर भी जो बेटी का सम्मान ना कर पाए उसे क्या कहेंगे आप! उसके होते ही ऐसा लगता है मानो मातम छा गया हो; उस मासूम से इंसान होने का हक छीन लिया जाता है, बेटी होने का हक़ तो बहुत दूर की बात है|
देखा जाए तो कहीं न कहीं खुले विचारों वाले माहौल में पली-बढ़ी लड़की समाज के लिए सबसे बड़ा कांटा होती है। या यूं कहूं तो संस्कारों को सबसे ज्यादा नुकसान होने का डर भी उन्हीं से होता है। क्योंकि कहीं न कहीं देखा जाए तो उसे अपने मां-बाप से बेटियों की इज्जत करने और उन्हें भी इंसान समझने की बेजा तालीम जो मिली होती है| खैर, मामला थोड़ा भटक गया। इस मसले पर कभी और प्रवचन दूंगी। हां, शायद में इतनी बड़ी हो गयी हूं (संस्कारी और धार्मिक लोगों की जुबान में कहूं तो इतनी बदतमीज) की समाज के नियमों और धार्मिक अनुष्ठानों को लेकर सवाल उठाने लगी हूं| लेकिन सच है, अगर कोई मुझसे पूछे कि क्या मैं 'देवी' की पदवी पाकर खुश हूं तो नहीं... मुझे देवी नहीं बनना, नहीं है मेरे अंदर बलिदान को भावना, वो सहनशक्ति जो किसी देवी में होती है| न ही किसी को माफ कर सकने की क्षमता है मुझमें| बस सही को सही और गलत को गलत कह सकने की ताकत है मुझमें| क्यों नहीं समझना चाहते हम कि समाज में सिर्फ़ देवियों की ही नहीं बल्कि बेटियों की ज़रूरत है जो अपने मां-बाप को भावनात्मक सम्बल दे सके और उन्हें गर्व से जीने का अधिकार दे सकेI बचपन से ही जब भी किसी त्यौहार के बारे में बात होती थी तो पापा या फिर ईजा उसके पीछे छिपे कारण के बारे में बताने लगते थे| हमेश उनसे सुना है कि कोई त्यौहार यूंही नहीं मनाया जाता, कोई ठोस कारण होता है उसके पीछेI आंखें मूंद कर उसका अनुसरण करना जरूरी नहीं, उसके पीछे का मकसद और भावना को समझना जरूरी है|
एक लड़की के दिल से पूछिए उसे देवी की पदवी चाहिए या एक सुखी जीवन का वरदान और ये वरदान उसे तब मिलेगा जब उसके माँ-बाप उसे इस धरती पर जन्म लेने का वरदान देंगे,उंची शिक्षा देंगे, अपना प्यार देंगेI यहां साहित्यिक नहीं होना चाहती, न ही इतनी बड़ी लेखक ( छोटी भी नहीं) हूं कि बड़ी बातें कर सकूं, बस एक गुजारिश कर सकती हूं कि 'मुझे या किसी भी लड़की को देवी मत बनाइये, इंसान ही रहने दीजिए... ये एहसान ताउम्र याद रहेगा' और हां, 'एक और बेटी को जन्म का वरदान दीजियेगा, वैसे ही जैसे उस बेटे को दिया है'|
भावना- (it's all about feelings)