लखनऊ-बनारस की वो पैसेंजर ट्रेन..


अगर आप पैसेंजर ट्रेन में सफर नहीं करते, हमेशा एसी गाड़ियों में चलना  पसंद करते हैं या कभी पैसेंजर ट्रेन में सफर करने का सौभाग्य न मिला हो तो मेरा सुझाव है कि एक बार इस सफर को आजमाकर देखिए. मजा ना आए तो पैसा वापस (हम पैसा वापस नहीं कर पाएंगे वो अलग बात है) हां, ये जरूर है कि पहली बार पैसेंजर ट्रेन में बैठना उतना सुखदायक नहीं होता लेकिन वक्त बीतने के साथ मोह हो ही जाता है. कुछ ऐसा ही लखनऊ-बनारस की पैसेंजर ट्रेन का हाल है. लगभग 4-5 घंटे का सफर, ऊपर से पैसेंजर ट्रेन, उसपर भी साथ बैठे लोग ठेठ बनारसी.

एसी डब्बों में बैठे लोग इतने सक्षम होते हैं कि कान में ठेपी लगाए और आंख में चश्मा चढाए अपनी ही दुनिया में डूबे होते हैं, कुछ किताबों में गुम होते हैं... सामने कौन है, क्या है, इससे अक्सर कोई मतलब नहीं होता. दूसरी ट्रेनों में सोने की व्यवस्था होती है इसलिए चर्चा का दौर जरा जल्दी खत्म हो जाता है लेकिन पैसेंजर ट्रेन में अक्सर ट्रेन का दरवाजा या 'एक बिलांग' मिली जगह से काम चलाना पड़ता है, ऐसे में एक अखबार में एक-दो सिर नहीं दो-चार सिर छुपे होना आम बात है. अक्सर एक मुद्दा धीरे-धीरे 'ट्रेन में चर्चा' का रूप ले लेती है. बनारस से लखनऊ जाते समय या लखनऊ से बनारस जाते समय अक्सर मुझे भी इन चर्चाओं का साक्षी बनने का सौभाग्य मिला है.

खैर, उस वक्त तो मेरे साथ सबकुछ पहली बार ही हो रहा था. पहली बार किसी दूसरे शहर में अकेले रहना, उस दिन पापा भी तो नहीं आए छोड़ने, दोस्त और दोस्त के पिता जी साथ थे. अंकल जी ने ट्रेन में बैठने की व्यवस्था की लेकिन जैसा कि पैसेंजर ट्रेन में अक्सर होता है- 'भाई साहब थोड़ा खिसकियेगा?' कहकर एक सीट पर दस लोग तो समा ही जाते हैं . अब भाई साहब और कितना इनकार करें, खसक गए और तीन-चार और भाई साहब समा गए. हां, अगर आप बनारस की पैसेंजर ट्रेन में चढ़े हैं तो आपको कुछ बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है. पहला उस पैसेंजर ट्रेन में आधे से ज्यादा बनारसी होंगे, दूसरा- उन्हें अपना सामान्य ज्ञान जताने की गलती न करें और बनारस की बुराई या किसी भी तरह का मतभेद कभी प्रकट न करें.

जब हम ट्रेन में बैठे थे तब सामने ही एक बनारसी परिवार बैठा था. अब अपने घर से किसे प्यार नहीं होता. किन्ही भाईसाहब ने बनारस को पिछड़ा हुआ घोषित कर दिया था .. ये शायद उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती थी, उस भद्र परिवार की महिला ने भाईसाहब को बीच में ही टोकते हुए पूछ ही लिया- 'कितना रहे हैं बनारस में', 'जानते क्या हैं बनारस में', 'कभी भैरव मंदिर गए हैं क्या'... 'बड़े-बड़े लोग हमारे शहर के दीवाने हैं'.. तबतक उनके साथ बैठे भाईसाहब बोल पड़े (महिला के पति थे शायद).. बनारस को पिछड़ा बता रहे भाईसाहब को दिव्य ज्ञान देते हुए बताया- 'वाराणसी शिव का स्थान है,.. मोक्ष मिलता है...गंगाघाट की आती.. मंगला आरती ये सब देखी है कभी?'

पहले वाले भाईसाहब अब बचाव की मुद्रा में थे.. बोले-  'बनारसियों की सोच बहुत पुरानी है, यहां डेवलपमेंट जैसा कुछ दिखता ही नहीं'.. दूसरे भाईसाहब का जवाब था- 'फिर भी आप जैसे डेवलप लोग शान्ति के लिए हमारे पिछड़े हुए शहर में आते हैं..क्या आपके शहर में गंगा घाट की शांति हैं, क्या आपके शहर में मन को शांति देते मंत्रोच्चार हैं, क्या आपके शहर में वो खुशनुमा पल हैं जिन्हें ढूंढने आप बनारस जा रहे हैं ?..' बनारस वाले भाईसाहब किसी भी हाल में विदेशी भाईसाहब को बख्शने के मूड में नजर नहीं आ रहे थे... जी, ये 'विदेशी' वाली संज्ञा भी बनारस वाले भाईसाहब ने ही दी..

बनारस को बुरा बताने के चक्कर में बुरे फंसे भाईसाहब जहां इस चक्रव्यूह से निकलने की फिराक में थे वहीं, बनारस वाले भाईसाहब उन्हें चक्रव्यूह से निकलने नहीं देना चाहते थे. बड़ी मुश्किलों से बात इस सहमति पर खत्म हुई कि जबतक विदेशी भाईसाहब बनारस के देसी अंदाज से वाकिफ नहीं हो जाते तबतक कुछ नहीं कहेंगे और किसी शहर के बारे में यूंही टिप्पणी नहीं करेंगे... इस वाकये में बहुत कुछ ऐसा है जिसे मैंने शामिल नहीं किया है क्योंकि वो बातें धुंधली याद है और मैं किसी चक्रव्यूह में नहीं फंसना चाहती.. हालांकि, ये पहली बार जरूर था लेकिन आखिरी बार नहीं. अक्सर बनारस आते-जाते एक 'विदेशी भाईसाहब' और एक 'देसी भाईसाहब'
की नोकझोक देखने को मिल जाती थी और हम चुपके से ज्ञान बटोर लिया करते थे.. आखिर हम भी तो शुरुआत में 'विदेशी' थे..

इसके बाद मैंने बहुत सी यात्राएं अकेले की लेकिन जो सुख या यूं कहें जो यादें इस बनारस पैसेंजर ट्रेन से मिलीं वो कहीं और से अबतक न मिल पाई... दिल्ली की मेट्रो ट्रेन में अबतक तो नहीं लेकिन अब भी खोज जारी है. शायद दिल्ली की मेट्रो ट्रेन में कोई 'विदेशी' और 'देसी' आपस में टकरा जाएं... आप भी कभी किसी पैसेंजर ट्रेन का लुत्फ़ उठाइये और वो ट्रेन बनारस की हो तो कहने ही क्या.... बताइएगा जरूर.


   (भावना तिवारी- it's all about feelings)

2 Responses so far.

  1. अच्छा लिखा है...कई बार पैसेंजर ट्रेन में चलते हुए ऐसे ही अनुभवों से दो-चार हुआ हूं।

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