कागज की नाव नहीं चलती

गर्मी और बरसात का मौसम, कूलर की ठंडी हवा (दरअसल, एसी का फैशन नहीं था), मौसम में बिकने वाला फल. कितना सुकून मिलता था इन सभी छोटी-छोटी बातों से. अपनी तो पार्टी भी हो जाती थी, इन्ही सब छोटी-मोटी (और सस्ती भी) चीजों के साथ. अरे रुकिए-रुकिए, वो कागज की नाव तो भूल ही गयी. भाई कैसे भूल सकते हैं उस कागज की नाव को, वही तो है जिसने कई बार रोते-रोते हंसने की टेक्निक सिखाई थी|

आजकल लखनऊ में नहीं हूं, रोजी-रोटी और करियर के चक्कर में घर छोड़कर दिल्ली (हां-हां, ठीक है. दिल्ली नहीं नॉएडा) में ही बसेरा बना लिया है. अभी यहां का मौसम काफ़ी अच्छा है। दिन में धूप और बदली का खेल होता है..शाम को ठंडी हवाएं चल रही हैं, जो बता रही हैं कि मॉनसून और झमाझम बारिश के दिन आने वाले हैं| तो जैसा कि हर गर्मी में होता है यहां भी बारिश की छिटपुट बूंदे गिरने लगी है. हां, थोड़ा सा फर्क है इसमें, न वो कागज की कश्ती थी, न मां के हाथों से बने हुए पकवान|

हम्म... सही कह रहे हैं आप, ना जाने बीच-बीच में कहां से आ जाती है? किसी काम की नहीं है और बातें करवा लो| तो जी, बात तो आपने एकदम पते की करी है| काम वाम तो न है जी आजकल| क्या है न कि तबीयत तोड़ी नासाज है आजकल और हमारे प्यारे ऑफिस वालों ने हमें छुट्टी दी है| तो मसला ये कि आराम कर रहे हैं और खाली दिमाग शैतान का घर वाली फीलिंग भी नहीं आ रही क्यूंकि दवाइयां खाकर पड़े रहते हैं दिनभर बेसुध| अब जेब में पैसा आएगा तो साइड-इफेक्ट तो होगा ही न|

खैर, मसला ये नहीं है मसला कुछ और ही है| आजकल ऑफिस से छुट्टी है तो कभी-कदार शाम को छत पर बैठ जाया करती हूं और कुछ किताबें हाथ में लिए पढ़ने की कोशिश करने लगती हूं| जबसे घर छोड़ा है किताबों का दामन भी छूट गया है| आज शाम भी कुछ ऐसा ही किया था कि तबतक पड़ोस के कुछ बच्चों पर नजर पड़ गई| पन्नियों को धागे से बंधकर उड़ाने की कोशिश कर रहे थे शायद| अब दिल्ली और नोएडा जैसे शहरों में ये देखकर थोड़ा अजीब तो लगता ही है| अब औरों को लगता है या नहीं, ये तो नहीं पता लेकिन मुझे जरूर लगा| और बस बचपन की यादें ताजा हो गयीं|

एक वक्त था जब मैं अपनी तबियत की वजह से नहीं शौक और खुशी से छत के एक कोने में बैठी रहती थी| अब तो मजबूरी है अकेले बैठे रहना, कोई साथ बैठने को होता नहीं न| अब तो हालात ये है कि बारिश भी हो तो बस ऑफिस के अंदर बैठे हुए किसी दूसरे के मुंह से सुन लीजिए कि बाहर बारिश की बूंदों ने समा बांधा हुआ है. और मन मसोस कर अपनी सीट से चिपके बैठे रहिए| फिलहाल तो खराब तबीयत का शुक्रिया कि अपने साथ वक्त बिताने का मौका दिया|

अब जब भी बरसात और गर्मी का मौसम आता है लगता है वक्त कितना बदल गया है | कहां हम मम्मी के पास बैठे या फिर छत पर दोस्तों के साथ पतंग उड़ाते नजर आते थे...वही अब बच्चे अपने स्मार्टफोन में लगे रहते हैं और मम्मी-पापा तो खैर कामकाजी हैं ही| कितना बदल गया है वक्त मोबाइल के उस पार बैठे शख्स के लिए तो हमारे पास बहुत वक्त है लेकिन अपने ही घर में रह रहे शख्स के लिए नहीं|| इस वक्त लिखने का कोई खास मकसद नहीं बस अपना बचपन बहुत याद आ रहा है, जब न ही शब्द से शब्द मिलाए जाते थे... न ही इमोजीज का अविष्कार हुआ था | शायद इसलिए इसमें भी शब्द से नहीं मिले |

अच्छा सुनिए न, आपसे मदद चाहिए | बचपन की वो कागज की नांव बहुत याद आ रही है लेकिन वो भी है कि अब चलती ही नहीं| कितनी ही गलियों में, कूलरों में ढूंढा... एसी के जमाने में सब खो गया | मिल ही नहीं रही | आपको मिलेगी तो बताएंगे न ! बचपन की सैर करनी है दोबारा |

Categories:

3 Responses so far.

  1. Unknown says:

    यहाँ शहरों में हम कई माले की इमारतों में रहते है न छत अपनी न जमीं अपनी इस लिए न यहाँ छत पे पनारे का पानी रोककर नहाने सुख है और न ही नीचे गलियों में भरे पानी में नाव चलाने का सुख क्योकि यहाँ तो गालियां भी बारिश के पानी को रुकने नहीं देती , सच ये की शहरों ने हमे बहुत कुछ दिया है लेकिन उसकी कीमत भी हमने अदा की है

  2. लिखा किया करो

  3. Sujit says:

    किसी न किसी दिन छत की सुखी मुंडेरों पर बरसेगी फिर वही बारिश ;
    फिर वही कागज़ों की नाव हिचकोले लेते हुए दूर बहती हुई जाएगी !!
    हमेशा की तरह .. शब्दों के सफर में कुछ और बातें अच्छी लगी :)
    Take Care :)

Leave a Reply