'ये दिल मांगे मोर'....

corruption
हमारे देश में भ्रष्टाचार हमेशा से ही मुख्य मुद्दा रहा है और अखबारों की सुर्खियाँ भी I जानकार मानते हैं के सबको खुद भ्रष्टाचार को लेकर जागरूक होना होगा , पर लाख पते की बात ये कर कोई क्यूँ जागे! जब उसके हाथ करोरो रूपये आ रहे हो I कल यूँही बैठे - बैठे एक ख्याल आया के एक चपरासी से लेकर हमारे माननीय मंत्री जी तक इसके दीवाने हैं I जब हमारे मुहल्ले में कोई सफाई कर्मी आता है तो उसकी सफाई  इस बात पर निर्भर करती है की मुहल्ले वाले उन्हें कितने रूपये की चाय पिलाते हैं I अब अगर बात करें मंत्री जी की तो उनकी तो महिमा ही अपरम्पार है........ उनकी तनख्वाह तक रोज़ के कामों के लिए कम है, जिसकी वजह से उन्हें सुविधा शुल्क लेना पड़ता है I अब वे भी क्या कर सकते हैं ...इसमें उनका कोई दोष नहीं- दोष तो है इंसानी फितरत का, जिसका मूल मंत्र है "ये दिल मांगें मोर"I
ना चाहते हुए भी हाथ बढ़ जाते हैं...नियति बोलिए या कुछ और पर होता यही है I  ये बात इसलिए भी ख़ास बन पड़ती है क्यूँकी जब देश में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कई तरह के क़ानून बनाये जाते हैं I हर दिन एक नया क़ानून और उसी के साथ उस क़ानून को तोड़ने का नया हथकंडा इजाद होता होता है I कोई भी क़ानून चार दिन से ज्यादा टिक जाये तो इतिहास बन जाता  है I अब धीरे  - धीरे  ये हमारी  आम  ज़िन्दगी  का एक हिस्सा  बन गया  है और इस तरह ज़िन्दगी  में शामिल   हो गया  है जैसे  हवा और पानी  I  देश में कहीं  हस्ताक्षर  अभियान  चलाया  जाता  है तो कहीं  नारे - बाज़ी  की जाती  है I गली - मुहल्ले में जाकर इस बात का एहसास कराया जाता है की भ्रष्टाचार नामक राक्षस के सामने हम सभी निरीह हैं I हर कोई व्याकुल है इस कडवे सच से...पर हैरत इस बात कि के  अपने भीतर बैठे इस राक्षस को मारने के लिए कोई तैयार नहीं  है, लेकिन सामने बैठे व्यक्ति को इस बात का एहसास कराने से कोई नहीं चूकता  की वह भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है I 
एक तरह से देखें तो यह भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन इसे बढ़ावा ही देते हैं I एक पार्टी दूसरी पार्टी पर आरोप लगाती है और इस आरोप प्रत्यारोप के दौर में कितने ही अपनी रोटी सकते हैं I भ्रष्टाचार पर लम्बी  - चौड़ी  बातें कागज़ पर  उकेरी जाती हैं और बाद में उन्ही को कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाता है I ध्यान दें  तो भ्रष्टाचार नाम का राक्षस होता ही नहीं , राक्षस होती  है दिल मांगे मोर क़ी भावना  I हम असंतुष्ट   होते  हैं , ज्यादा से ज्यादा पाने   का मकसद  लेकर कदम  बढ़ते  हैं और जन्म  देते हैं भ्रष्टाचार  को I एक छोटे  से बच्चे  को भी पता  होती  है इस भ्रष्टाचार क़ी माया  I नर्सरी में दाखिला  लेने  से लेकर नौकरी लगने  तक रिश्वत  का बोलबाला  है I अगर एक छोटी  सी  नौकरी  भी चाहिए तो भी रिश्वत  चाहिए  ही I चाहे  जितनी  योजनायें  सरकार  क़ी तरफ  से बना  ली  जाएँ  उसका  फ़ायदा  केवल   उन्ही लोगों को मिलता है जिनकी पहुंच हो, ज़रूरतमंद  तो बस देखते  रह  जाते हैं I 
हम कहते हैं समाज में चोरी डकैती बढ़ रही है, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है....तो कोई गरीब  क्या करे ! जब उसके पास  ना कुछ खाने  को है, ना पहनने   को I पेट  तो भरना ही है, चाहे जैसे हो I उस वक़्त ना धरम - करम  समझ  आता है....ना ही पाप - पुण्य , कुछ समझ  आता है तो वह ये के पेट  को भूख  लगी है और शरीर ढकने के लिए कपडे क़ी जरूरत है I चाहे वह मेहनत के हो या चोरी के I उस गरीब को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता के सत्ता में कौनसी सरकार है, उस गरीब के लिए हर सरकार  का कार्यकाल बराबर है...क्यूँकी उसकी दशा  नही सुधरने वाली I  क्या खूब है जिस गरीब को मुद्दा बनाकर भ्रष्टाचार कम करने क़ी कवायद क़ी जाती है....ना तो उसे सरकार का पता है ना ही भ्रष्टाचार का I भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन तो दूर क़ी कौड़ी है उनके लिए I फ़िर भी चाहे जो कहिये इंसानी फ़ितरत होती बड़ी मजेदार है , जिसका मूल मन्त्र है 'ये दिल मांगे मोर' I  
खैर यक्ष प्रश्न ये... के हम क्या करें अगर भ्रष्टाचार बढ़ रहा है तो!   तो जवाब ये के करना चाहें तो बहुत कुछ है करने के लिए एक बार सोच कर तो देखिये...,कोई नुकसान नहीं है इसमें I बस थोडा सा वक़्त और थोड़ी सचाई क़ी जरूरत है ताकि सोचते वक़्त खुद से नज़रें मिला सकें हम......I  

"मिलायी जो नज़रें मैंने खुद से ...
शक हुआ खुद से नजरें मिला रहा हूँ
या किसी गुनहगार से....
ज़िन्दगी भर गुमाँ था खुद पर मुझे
आज खुद से नज़रें मिलाने में....
जाने क्यूँ  मेरा दिल घबरा रहा था"

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5 Responses so far.

  1. Anonymous says:

    Bhawna tmne apne is post me mantri aur chaprasi k bare me bhot hi achcha likha hai aur last me jo stanza likha hai wo rasllr touching hai..
    .
    .
    N!KH!L

  2. @anonymous: thamx dear...

  3. Unknown says:

    kosis achchi hai lage raho......

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