ये तेरा घर , ये मेरा घर....

ना-ना शीर्षक पढकर ये मत सोचियेगा कि यहाँ इस बेहतरीन नग्मे कि बात कि जा रही है है...यहाँ बात हो रही है राज्य के नाम पर हो रही अनसुलझी लड़ाई कि या यूँ कहें राज्य बनाम राज्य...जिसकी वजह से देश दो भागों में बटता जा रहा है वो देश जिसके लिए कहा जाता है के अखंडता , संप्रभुता इसकी पहचान हैं, पर भाषा और अलग अलग सभ्यताओं के चलते हालात थोड़े बिगड़ गये....भारत एक ऐसा देश है जहाँ ना जाने कितनी ही भाषाएँ व् बोलियाँ बोली जाती हैं, कभी यह प्यार कि वजह बनती है तो कभी टकरार कि....
कुछ समय से भाषा और राज्य कि सीमाओं ने इंसानों के बीच दीवार खड़ी कर दी है..एक राज्य दुसरे राज्य के साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है...अगर कोई बाहरी राज्य का व्यक्ति आ जाये तो ऐसा लगता है मानो आसमान फट गया हो...एक छोटी सी बात को खिंच कर इतना बड़ा कर दिया जाता है, जिसका कोई अंत नहीं मिलता...बात बहुत बड़ी नही होती, बस समझने का फ़ेर होता है.....इसे अगर हम समझना चाहें तो आसानी से समझ सकते हैं...ये उसी कि तरह है जैसे जब हम कालोनी में रहते तो वहां तरह-तरह के लोग रहते हैं, कोई शांत; कोई टेढ़ा; कोई सीधा; कोई चतुर-चालक....अब मान लीजिये वहां रह रहे लोगों के बीच नाली को लेकर झगड़ा जाये फ़िर भी वो रहते तो मिलकर हैं ना...सूरज जब निकलता है तो ये सोचकर नहीं निकलता के पूरब में रौशनी देनी है या पश्चिम में नहीं...
हमारी ताकत हमारी कमज़ोरी बनती जा रही है...जिस अनेकता पर हमें गर्व है, कहीं वही हमारी एकता में सेंध ना लगा दे...पर इसके लिए भाषा दोषी नही, हम खुद दोषी हैं ....हम अपने गुरुर और बेमाने डर को पूरा करने के लिए दूसरों पर आरोप लगते हैं...कोई किसी कि भी रोज़ी रोटी पर लात नही मरता , जिसे जहाँ मौका मिलता है वो बस वहीं अपनी मंज़िल तलाशता है...इसे चन्द लफ़्ज़ों में बयां किया जा सकता है जैसे:
"ख्वाब हमेशा साथ दें ज़रुरी तो नहीं,
ज़िन्दगी हमेशा प्यार दे ज़रुरी तो नहीं,
चाहता हर कोई है अपनी मंजिल को पाना,
सबको  अपनी राह मिले ज़रुरी तो नहीं"
हर कोई अपने घर से सोचकर निकलता है के वो कुछ ना कुछ हासिल कर लेगा लेकिन अगर ये कुछ उसे दुसरे राज्य में हासिल हो तो क्या वह इसे हाथ से जाने दे? अगर हम उसकी जगह होंगे तो हम क्या करना चाहेंगे! बहुत सालों पहले जब हमारा देश लम्बी चली लड़ाई के बाद आज़ाद हुआ तब धर्म के नाम पर देश का विभाजन हुआ....जिसका सुख ना तो हिन्दुओं को मिला ना ही मुसलमान को , दोनों एक ही वेदना से जूझ रहे थे और वो थी अपनों से बिछड़ने कि वेदना....
सियासी तौर पर यह मुद्दे बड़े ही फायदेमंद हैं पर अगर एक इंसान के तौर पर देखें तो ना ही ये धर्म है ना ही कर्म.....बस एक जिद है खुद को ऊपर उठाने कि जो वास्तव में हमारे  ज़मीर को गिरा रही है.....

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4 Responses so far.

  1. Unknown says:

    well written dear!!!!!!! bas isi tarah se aur acha likhti raho... ma best wishes r alwayz wid u!!!

  2. बड़ा ही यतार्थ चिंतन.....आप तो एकदम से गर्दा मचा दी हो.....

  3. Mukul says:

    बस एक जिद है खुद को ऊपर उठाने कि जो वास्तव में हमारे ज़मीर को गिरा रही है.....
    बात में दम है लेकिन दोस्त ज्यादा भारी विषय को लिखने के लिए थोडा पढ़ो
    पर सोच अच्छी है हाँ आप सही दिशा में जा रही हैं तो वीर तुम बढे चलो

  4. Bhawna if u take some light issues under ur fingers, than it will be better for ur writing..
    u have raised very good topic, but it wants some more experience and skills.

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