मॉडर्न इंडिया की अनदेखी कहानी
मोबाइल
है लेकिन उसे
चार्ज करने के लिए बिजली आने का इंतजार करना पड़ता है। फेसबुक, ट्विटर
जैसे तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बारे में जानकारी है, लेकिन उनसे जुड़
नहीं पा रहे। कोचिंग या स्कूल कॉलेज जाते हैं तो आने-जाने में ही सारा समय खप जाता
है। बसों, ट्रकों और ट्रैक्टर या बैलगाड़ी से आने-जाने में कई मुसीबतें झेलनी
पड़ती हैं। महिलाओं को टॉयलेट जाने के लिए अंधेरा होने का इंतजार करना पड़ता है। आपको
इन गांवों में मॉडर्न इंडिया और सरकारी उदासीनता का यह कंट्रास्ट आसानी से दिख
जाएगा। एक तरफ कवायद चलती है कि गांवों से पलायन रुकना चाहिए, विकास
का रास्ता अपने निवास स्थल से बनाना चाहिए, दूसरे ऐसे हालात
हैं गांवों के।
हर मौसम इनके लिए मुसीबत लेकर आता है। बरसात में मलेरिया, डेंगू,
डायरिया,
पीलिया
जैसी बीमारियों का प्रकोप तो जाड़ों में हाड़कंपाउ ठंड से जान को खतरा। गर्मी में
लू लगकर मुसीबत में फंसना। गांवों में रहने वालों की जैसे नियति ही बन गई है। ऐसा
नहीं है कि गांव का यह जो नजारा हमें दिख रहा है, हर तरफ वैसा ही
है। एक ही गांव में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो आलीशान जिंदगी का लुत्फ उठाते नजर
आते हैं। उनके लिए हर सुख-सुविधा है, खूब सारी जमीन है। जमीन उनकी, मेहनत
किसी की और मौज उनकी। बिजली नहीं है तो उसका वैकल्पिक उपाय भी मौजूद है। नेटवर्क
नहीं है तो दूसरा फोन है और भी बहुत कुछ। दूसरी तरफ मेहनतकश के सामने कई तरह की
दिक्कतें।
भारत
को गांवों का देश कहा जाता है। गांधी जी ने भी कहा था हमारे देश का कल्याण तभी
संभव है जब गांवों का विकास होगा। सवाल ये कि गांवों का विकास कैसे होगा और कौन
करेगा? इस बारे में जानकार कहते हैं कि सबसे पहले बेसिक नीड्स को पूरा किए जाने
की जरूरत है। आज भी हजारों गांव ऐसे हैं जहां महिलाओं को टॉयलेट जाने के लिए
अंधेरा होने का इंतजार करना पड़ता है। कितनी बड़ी विडंबना है यह। हाल ही में एक
रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि टॉयलेट की उचित व्यवस्था न होने के कारण महिलाएं बीमारी
से ग्रसित हो रही हैं। एक आश्चर्यजनक तथ्य तो यह सामने आया था कि कई महिलाएं डर के
मारे पानी नहीं पीतीं। पानी पिया तो फिर टॉयलेट कैसे जाएंगी।
असल
में गांवों की सिर्फ नकारात्मक तस्वीर ही नहीं है। गांवों में विकास की हरियाली
भी है। आधुनिकता की भी छाप है, लेकिन परेशानियों के मुकाबले बहुत कम।
निजी कंपनियों ने कैसे अपने मोबाइल गांव-गांव तक पहुंचा दिए। कैसे आज लाइफ में फोन जरूरी कॉमोडिटी बन गया है जबकि कुछ वक्त पहले तक यह लक्जरी की कैटेगरी में आता था।
फिर क्यों बेसिक नीड्स गांवों में नहीं पहुंचाई जा सकतीं? असल में कई बार तालमेल
का अभाव दिखता है तो कई बार पॉलिसी मेकर्स गांवों की अनदेखी करते हैं। मीडिया भी
कुछ अलग नहीं है, उसके पास अपनी मजबूरियां हैं जैसे- कभी टीआरपी तो कभी टारगेट
ऑडिएंस| क्यों दिखाए गांवों की तस्वीर? हां, कभी-कभी पीपली लाइव की तरह कोई घटना
बन सकती है जो मीडिया में आए। वैसे असल जिंदगी का डौंडीया खेडा तो याद होगा ही आप
सभी को, आखिर सोने की खोज को कौन भूल सकता है| ऐसे में बस उम्मीद ही की जा सकती है
कि ये गांव सिर्फ कहानियों में ही न याद किये जाएं बल्कि असल में भी इन्हें याद
रखा जाए|
जी सही कहा आपने .. सरकार बस यहाँ के लोगों के पास आती .. गरीबी के रोकेट साइंस की बातें होती फिर बस वही ढाक के तीन पात ... आपसे और SPEAK OUT में ज्वलंत मुद्दों पर बातों की उम्मीद रहेगी !!
@sujit kumar: shukriyaa...